लखनऊ,लाइव सत्यकाम न्यूज। कला दीर्घा, अंतरराष्ट्रीय दृश्यकला पत्रिका, लखनऊ एवं गुरुकुल, कला वीथिका, कानपुर द्वारा आयोजित प्रख्यात कलाकार, कलाचार्य और कला दीर्घा अंतरराष्ट्रीय दृश्यकला पत्रिका के संपादक अवधेश मिश्र की चित्र श्रृंखलाओं के चयनित चित्रों की एकल प्रदर्शनी अरघान का उद्घाटन आज गुरुकुल, कानपुर में हुआ। कला दीर्घा की प्रकाशक डॉ लीना मिश्र ने कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रख्यात साहित्यकार आचार्य पंकज चतुर्वेदी को अंगवस्त्र ओढ़ाकर उनका स्वागत किया। मुख्य अतिथि ने दीप प्रज्वलित कर अरघान प्रदर्शनी का उद्घाटन किया और चित्रों का अवलोकन करते हुए कहा कि कलाएं जीवन से परिचय कराती और स्मृतियों को संरक्षित करती हैं। अवधेश मिश्र के चित्रों में विराट जीवन ध्वनित होता है।
डॉ शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय, लखनऊ में शिक्षक एवं प्रख्यात कलाकार अवधेश मिश्र ने स्वयं अपने चित्रों के बारे में बताते हुए कहा कि यह प्रदर्शनी मेरी कला यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर किये गए कामों का एक गुलदस्ता है जो भारतीय संस्कृति का अरघान है, सुगंध है। वह सुगंध जो हमको हमारी जड़ों से जोड़ती है, हमारी संस्कृति की मिठास हमारे जीवन में घोलती है, हमें और हमारे समाज को अपनी संस्कृति की चाशनी में सराबोर कर जीवन में उत्साह और ऊर्जा भर देती है। इस प्रदर्शनी में बनाये गए चित्रों के संयोजन में भारतीय रंग, रीति और आत्मा का चित्रण है जो दर्शकों के मन में समा जाता है। एकाकार हो जाता है। उसे भारतीयता के गीत और संगीत में सुर मिलाने को आकृष्ट करता है।
गुरुकुल कला वीथिका के कलागुरु आचार्य अभय द्विवेदी ने कहा कि हम प्रख्यात कलाकार अवधेश मिश्र की कला संवेदनाओं और उनकी कला यात्रा से एक लम्बे समय से परिचित और प्रभावित हैं, इसीलिए हम चाहते हैं कि इनकी कला रचनाओं से स्थानीय कला प्रेमी जुड़ें और इनके संरक्षण में कला-लेखन, प्रलेखन और समकालीन कला प्रवृत्तियों से अपने को जोड़ें। अवधेश मिश्र के चित्रों की यह दूसरी एकल प्रदर्शनी गुरुकुल कला वीथिका में आयोजित हो रही है, आगे भी हम सब इनकी नयी रचनाओं को देखते रहें इसका गुरुकुल को इंतजार रहेगा।
प्रदर्शनी की क्यूरेटर डॉ लीना मिश्र ने कहा कि गाँव आज भी प्रकृति का सहचर है और ग्रामीण अपनी देशज संस्कृति और परम्पराओं को अपनी थाती की तरह संजोते हुए पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाने वाले। वह सब कुछ स्वाभाविक रूप से उनकी जीवन शैली में सम्मिलित है जिसे जीवन के हर क्षेत्र में जीवन्त परम्परा की तरह धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से समझा ही नहीं, व्यवहार में भी लाया जाता है। इसके मूल में एकता, सौहार्द्र, प्रेम और भाईचारा अनिवार्य रूप से विद्यमान रहता है। गँवई संस्कृति में आज भी सामाजिक त्यौहार, अनुष्ठान और मेले खुशियाँ बाँटने और मन के मेले होते हैं।
यहाँ एक दूसरे के लिए सहयोग और समर्पण की भावना रखते हुए अधिसंख्य आस्तिक होते हैं और पूजा-पाठ, धर्म-कर्म-अनुष्ठान एवं ग्राम्य देवी-देवता के आशीर्वाद और संरक्षण पर स्वयं से अधिक विश्वास रखते हैं। रीति-रिवाज और त्यौहारों को यहाँ जीवनपर्यन्त जिया जाता है। इससे अपनी रीतियाँ और परम्पराएँ तो बलवती होती ही हैं, सामाजिक सम्बन्धों में भी गर्मजोशी बनी रहती है। मांगलिक कार्यों में सभी जाति-धर्मों के लोगों की मनपूर्वक अनिवार्य भागीदारी भारतीय संस्कृति के ताने-बाने को और सघन करती है।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तगत होता सजावटी या आवश्यक वस्तुओं का निर्माण भी शिल्पगत दक्षता को परम्पराओं में सम्मिलित करता है जो आय के साधन से अधिक सामाजिक और मन का काम होता है, जैसे- डलिया, मौनी, सिकहुला, बेना, लकड़ी और मिट्टी के खिलौने तथा हँड़िया, गगरी, कूँड़ा या कृषि कार्य और गृहस्थी में काम आने वाली अन्य पारम्परिक वस्तुओं का निर्माण इत्यादि। उनके जीवन में जन्म से विवाह तक के समस्त अनुष्ठान और रीति-रिवाज सांस्कृतिक और सांगीतिक हर्षोल्लास से रससिक्त रहते हैं।
लोक का ध्वनित होता स्वर नृत्य-गान, रामायण के पाठ, श्रीमद भागवत, सत्यनारायण-कथा, कीर्तन-पचरा-फगुआ-नौटंकी-आल्हा-बिरहा-धोबिया, कोहबर-साँझी-कलश गोंठना-मेहंदी रचना और न जाने किन-किन रूपों में प्रचलित कला-रूप संवादी बन मन में समाया रहता है। यही तो है भारतीय लोक का ‘अरघान’ जो कलाकार अवधेश मिश्र के चित्रों के माध्यम से देशीय सीमाओं को लाँघते हुए कलाप्रेमियों के दिलों के अन्तस को छू रहा, सहला रहा और स्पन्दित कर रहा है। इसी ‘अरघान’ को महसूस करते हुए जाइये न अयोध्या जनपद के गाँव मठा में, जहाँ बिजूका चित्र श्रृंखला के रचयिता अवधेश मिश्र का बचपन बीता है।
वही बिजूका, जो अभी भी खेती-बाड़ी की गतिविधियों का एक अनिवार्य हिस्सा होता है और प्रायः गाँव से बाहर दूर-दूर तक फैले खेतों की हरियाली के बीच अनन्त काल से अपना एकान्त और उपेक्षा ओढ़े खड़ा है जिस पर शायद ही किसी की नजर पड़ती हो, जबकि अवांछित जानवरों से खेतों की रखवाली में तन्मय और संलग्न वह वहीं सतत उपस्थित है।
साहित्य और कला की दुनिया में भी हमेशा से उपेक्षित बिजूका अवधेश के बालक मन को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करता और भीतर तक बसता चला गया। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा गाँव में ही पूरी हुई तो उच्च शिक्षा के लिए उन्हें अयोध्या, लखनऊ, बनारस, बरेली और खैरागढ़ विश्वविद्यालय के बहाने नगरों से जुड़ने का अवसर प्राप्त हुआ। इस बीच गाँव तो लगभग छूट ही गया लेकिन बिजूका अब भी जस का तस बना रहा, स्मृतियों और सपनों के अनेक रंग-रूप लिए बिजूका कूचियों के सहारे कैनवस पर उतरता गया। ग्रामीण-जीवन से नागर-जीवन तक अवधेश मिश्र विविध परिस्थितियों और गतिविधियों से दो-चार होते रहे हैं।
एक संवेदनशील व्यक्ति की जीवन-यात्रा ने मन को प्रकारान्तर से प्रभावित भी किया जिसे उन्होंने अपनी रचनात्मकता के साथ बहुविधि चित्रित किया है। बिजूका अब सिर्फ खेतों में खड़ा नहीं था, ग्रामीण-जीवन, नगर तक फैलते जा रहे एकान्त, विस्थापन और अजनबीपन के नाना दृश्य-विधान, निसर्ग, बचपन की अनेकानेक स्मृतियाँ, स्कूल डेज़, लय और इस तरह बिजूका रिटर्न्स उनकी लोकप्रिय चित्रकला श्रृंखलाएं ही बन गयीं। उनके चित्रण में ग्रामीण-जीवन, भारतीय संस्कृति के विविध रूप और विधाएँ, रीति-रिवाज, उत्सव धर्मिता, सांस्कृतिक मूल्य और प्रतीक, आंचलिक रंग और सुवास, अपने गुरुओं से प्राप्त कला-गुर, अनुभव और परम्पराओं का निर्वाह देखा जा सकता है।
खेती-बाड़ी से जुड़ी गतिविधियों से संलग्न होने के कारण अवधेश मिश्र के काम में प्रकृति, कृषि-कार्य के उपकरण एवं ग्रामीण जन-जीवन – उनके धार्मिक क्रिया-कलाप, लोकाचार, पर्व-त्यौहार तथा मांगलिक गतिविधियों में प्रयुक्त होने वाले प्रतीक और आवश्यक सामग्री आदि को शुरुआती श्रृंखलाएं और जब बनारस तथा लखनऊ नगर से जुड़ने का अवसर मिला, तब यहाँ का भौतिक-दृश्य और उसके परे का भी जीवन उनके चित्रण में दिखाई पड़ता है। गाँव मठगोविंद (मठा) में बचपन बीतने के कारण प्रकृति से जुड़ाव तो अवधेश का बचपन से ही रहा है जिसे इन्होंने बहुविधि रचा भी है। वह परिवेश और जिए पल अवधेश अभी भी याद करते हैं।
वह बरसात के दिनों में चींटे को कागज की नाव पर बैठाकर तैराने के दृश्य को भी नहीं भूले हैं, न ही कागज की फिरकी लेकर दौड़ना, ढिबरी-लालटेन-केरोसीन लैम्प जलाकर रात में पढ़ाई करना, शादी-ब्याह में शामियाने में टँगे केरोसीन-पेट्रोमैक्स की रोशनी में नाच-नौटंकी देखना, किसी मांगलिक आयोजन में केले के पत्तों से मंगल-द्वार बनाकर आम की पत्तियों और कागज की तिकोनी लाल, हरी, पीली, नीली झंडियों से उसे सजाना, साइकिल से निकले टायर को चलाते दूर निकल जाना याद करते हैं। साथ ही विवाह के माड़व में हल और पाटे का प्रयोग, लकड़ी से बने हल्दी से रंगे सुग्गे, उत्सव के रंग में रंगे चूल्हे और लोक-संगीत की चाशनी में भीगे पकवान, खपरैल की मुंडेर पर काँव-काँव करते कौवे, छप्पर के नीचे शकरकंदी, आलू और हरा चना भूनते हुए लगने वाला चौपाल अवधेश मिश्र की स्मृतियों में हैं और वह उसे प्रकारान्तर से अपने चित्रों में जीवन देते रहे हैं।
उनकी महत्त्वपूर्ण श्रृंखला रही है बिजूका, जो खेतों में खड़े रहकर विश्वास और रक्षक का प्रतीक बना रहता है। अवधेश कहते हैं ‘वह कभी डराता था तो कभी निरीह दिखता था। कभी रक्षा और विश्वास का भाव पैदा करता था तो कभी उजबक भी लगता था।’ नौकरी-चाकरी में आने के बाद इन्होंने तंत्र को जितना समझने का प्रयास किया, अलग-अलग रूपों में हर कोई बिजूका दिखाई देने लगा।
बिजूका एक दृश्य से परिदृश्य बनने लगा। बिजूका श्रृंखला को अनेक माध्यमों में रचकर अवधेश मिश्र ने कटाक्ष करना, प्रस्ताव देना, सुझाव देना, आगाह करना, अपने समृद्ध और विकसित अतीत की ओर झाँकने को प्रवृत्त करने इत्यादि जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर निजी शैली और तकनीक में नवाचार विकसित करते हुए कई एकल और सामूहिक प्रदर्शनियां की हैं।
बिजूका चित्र श्रृंखला अनेक महानगरों में प्रदर्शित होकर कलाकारों और कलाप्रेमियों के बीच काफी लोकप्रिय हुयी है। एक लम्बे समय तक बिजूका चित्र श्रृंखला पर काम करने के उपरान्त अवधेश मिश्र ने स्कूल डेज़ और लय श्रृंखला पर भी काम किया और फिर कला प्रेमियों की आकांक्षा का मान रखते हुए अवधेश ‘बिजूका रिटर्न्स’ श्रृंखला पर पुनः लौटे हैं।
अब बिजूका कटाक्ष करना, प्रस्ताव देना, सुझाव देना, आगाह करना छोड़ कर अपने समृद्ध, विकसित और सुखद अतीत की ओर झाँकते हुए अपनी संस्कृति और जन-जीवन का अनुस्यूत हिस्सा बनकर, कहीं नाचता-गाता तो कहीं उत्सव मनाता, कहीं रक्षक तो कहीं आस्था और विश्वास की भूमिका में खड़ा नज़र आता है।
अब वह समाज तथा परिवार का सदस्य बनकर हम सबके बीच स्वयं कलाकार की तरह ही रंग-बिरंगे कपड़ों को धारण कर प्रसन्नचित्त नजर आता और दर्शकों तथा कला प्रेमियों को आनन्दित करना चाहता है। भारतीय संस्कृति की मूल संवेदनाओं से सिक्त यही ‘अरघान’, यही सुवास विशिष्टता है अवधेश के कला-संसार की, जो तकनीकी नवाचार के साथ अनेकानेक रंग-रूपों में हम सबके समक्ष है।
यह ‘अरघान’ चित्र प्रदर्शनी अवधेश मिश्र द्वारा सृजित की गयी अनेक श्रृंखलाओं के चुनिंदा कामों की प्रदर्शनी है जिससे उनकी पूरी रचनात्मक-यात्रा पर एक विहंगम दृष्टि डालते हुए रचनाकार की पृष्ठभूमि, कल्पनाशीलता, रचनात्मकता और उनके संवेदनशील व्यक्तित्व को समझा, अनुभूत किया व रचनाओं के सृजन-तल पर एक समृद्ध दृष्टि के साथ जुड़ा जा सकता है।
अरघान प्रदर्शनी के उद्घाटन अवसर पर आचार्य पूर्णिमा तिवारी, आचार्य प्रेम कुमारी, आचार्य हृदय गुप्ता, सुमित कश्यप, श्याम सुन्दर, आर के शर्मा, वीणा अवस्थी, अमरजीत, अश्वनी कुमार, मीनू गौतम, बोला सिंह आदि नगर के कला प्रेमी उपस्थित थे।
प्रदर्शनी के समन्वयकद्वय डॉ अनीता वर्मा तथा सुमित कुमार ने बताया कि यह प्रदर्शनी 6 मई तक अपराह्न 3 बजे से शाम 7 बजे तक दर्शकों के अवलोकनार्थ खुली रहेगी और शीघ्र ही कला दीर्घा प्रदेश के कला परिदृश्य को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशेष पहचान के साथ स्थापित करने हेतु ऐसी प्रदर्शनियों को लेकर देश-विदेश के अन्य नगरों में भी जायेगी।